क्वीयर घर: बसने-बसाने का काम, भाग-1

घरेलू कामों के बंटवारे पर जेंडर भूमिकाओं के निर्धारण को समझने के लिए क्वीयर परिवारों से बातचीत.

क्वीयर घर: बसने-बसाने का काम

द थर्ड आई टीम को लॉकडाउन के पहले से ही घर पर होने वाले काम के बंटवारे को लेकर कई सवालों के जवाब पाने की धुन सवार है. कौन सा काम कौन करता है? किसे करने को मिलता है? जेंडर का इससे क्या ताल्लुक है? लोग कैसे कुछ खास भूमिकाओं में आ जाते हैं? बिना सोचे, बिना एहसास किए? घर बसाने का काम, प्यार से कितना जुड़ा है, लेकिन इसके बावजूद यह एक भार भी है. है ना? क्या ऐसा कोई तरीका हो सकता है कि घर बसाने के इस काम से उस जेंडर पहचान को अलग रखा जाए जिसे यह ‘स्वाभाविक रूप से’ बढ़ावा देता लगता है? (दूसरा भाग यहां पढ़ें).

सहयोग: टीटीई टीम और शामिनी कोठारी

तो, हम, सही मौके की तलाश में निकले, जहां हम इन सवालों के जवाब ढूंढ सकें. एक ऐसी जगह की तलाश में जहां इस तरह के सवालों पर बातचीत होती है और जहां चीज़ों को पलटकर देखा जाता है. ऐसा मौका जहां जिन लोगों ने मिलकर घर बनाया है वे हमसे जेंडर के बारे में बात करें और यह भी बताएं कि किस तरह कई बार यह रास्ते का रोड़ा बनता है. लेकिन कई बार मददगार भी साबित होता है.

हमें यह मौका क्वीयर घरों में मिला.

द थर्ड आई आपके सामने दो भागों में प्रस्तुत करता है 5 इंटरव्यू. क्वीयर लोगों के साथ जिन्हें समाज अलग, कुछ हट कर मानता है.

यह शब्द बहुत नया है. न तो यह रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इस्तेमाल किया जाता है और न ही इन पहचानों को समाज में कोई दर्जा दिया गया है. यहां तक कि उनके बारे में बात करने के लिए हमारे पास भाषा भी नहीं है. ऐसे में ‘अपनी जगह जानना’ न तो उनके लिए सहज है और न ही बोझ – चाहे वो रसोई में हो, सोने के कमरे में या लोगों के सामने. ‘लड़कियों को बेबी पसंद हैं’, और ‘लड़कों को सेक्स’, लड़कियां ड्राइव नहीं कर सकतीं’, ‘लड़के रो नहीं सकते’– वे ऐसी बातें सुनते हुए बड़े हुए हैं, मगर बाद में उन्हें पता चलता है कि ‘उचित व्यवहार’ के समाज द्वारा बनाए गए ऐसे नियम तो उन पर लागू होते ही नहीं होते.

जब क्वीयर घर बनाते हैं तो साथ-साथ उन्हें नए नियम भी बनाने होते हैं. लेकिन उन्हें यह भी पता चलता है कि ‘जेंडर के नियमों’ से ‘आज़ादी’– उन नियमों से आज़ादी है जो बताते हैं कि ‘आदमियों का काम क्या है’ और ‘औरतों का काम क्या है’- यह एक छल है और इस तरह के नियम ज़िंदगी में पहचान के सभी पहलुओं में घुस आते हैं.

द थर्ड आई ने, उन लोगों से जाना जो क्वीयर घर बनाते हैं कि कैसे ‘घर’ का निर्माण एक ‘काम’ है, जिसमें काम करने वालों में सीमाओं (पुरुषत्व और स्त्रीत्व) को लांघने की तत्परता चाहिए होती है.

क्वीयर घरों को बनाने का काम करने वालों को सत्ता के असंतुलन से ऊपर उठना होता है. असंतुलन है घर के मालिक और उसमें रहने वाले लोगों के बीच, कमाने वालों और उन पर निर्भर रहने वालों के बीच ऐसे कई प्रकार के सत्ता के रिश्ते हैं जो तकलीफदेह हो सकते हैं. क्वीयर घरों में काम करने वालों को इस तकलीफदेह असंतुलन से उभरना होता है. काम करने के मतलब में शामिल है औरों (परिवार, पार्टनर) की खुशहाली के लिए ज़िम्मेदारी उठाना और उनकी भी जिनके साथ संबंध मुश्किल हैं – यानी वे जो दूसरे जेंडर, जाति, वर्ग और नस्ल के हैं.

जैसा कि काम के बंटवारे के सिलसिले में सना कहती हैं – “आपस में बातचीत करना ज़रूरी है मगर यह बातचीत आसान नहीं, यह भी एक काम है.”

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सना और रश्मी, उम्र 40 के आस-पास का समलैंगिक जोड़ा. दक्षिण/बाहरी दिल्ली

सना ने हाल ही में नया फ्लैट किराए पर लिया है. जहां से ऑफिस आना-जाना आसान है और जगह भी बेहतर है. वह और उसकी पार्टनर पुराने फ्लैट के साथ ही एक कुत्ता भी छोड़ आए हैं, एक गली का कुत्ता, जो उनके दरवाज़े के बाहर सोता था.

“मैं अपना नंबर और कुछ खाना छोड़ आई हूं. लोगों को बोला है कि अगर वह बीमार लगे या गायब हो जाए तो मुझे बता दें. आशा है कि वह ठीक रहेगा.”

वह उस बिल्डिंग में पिछले 9 सालों से रह रहा है. मैंने उसे दिलासा देते हुए कहा कि वह ठीक रहेगा.

“हमारे फ्लैट के सामने रहने वाली औरत न तो उसे पसंद करती थी, न ही हमें.” उसने मुझे पहले बताया था. वह मकान मालिक से कुत्ते के बारे में शिकायत करती रहती थी, उसका छोटा सा बिस्तर उठा कर फेंक देती थी और उसे धमकी भी देती थी. “हमने कभी उसे अपने बारे में बताया नहीं, मगर लोगों को अंदाज़ा तो हो ही जाता है.” वह अक्सर कोई न कोई कड़वी सी बात बोलती रहती थी.

शुक्र है, मकान मालिक ने उसकी शिकायतों का सही, व्यवहारिक हल निकाला, उसने नीचे रखे कूड़े के डब्बे को बांध दिया ताकि गंदगी न फैले और लोग बिना परेशानी बिल्डिंग में आ-जा सकें.

“मुझे कूड़ा उठाकर नीचे डब्बे तक ले जाना नहीं पसंद.” सना बताती है, “जब आप नहा कर, तैयार होकर ऑफिस  ऑफिस जाने के लिए घर से निकलते हो तो कूड़ा उठाने का मन नहीं करता.”

मगर वो यह काम करती है.

“हां, और क्या किया जा सकता है?”

“मेरे पिछले रिश्ते में, कोई काम होने पर मैं ही ऑफिस से छुट्टी लेकर वह काम करवाती थी. चाहे वो पेस्ट कंट्रोल हो या किसी दोस्त का ध्यान रखना हो क्योंकि मेरी पार्टनर डॉक्टर थी और उसका काम हमेशा ज़रूरी होता था. इस रिश्ते में – रश्मी जब दिल्ली मेरे साथ रहने आई तब उसके पास कोई नौकरी नहीं थी. उसे लगने लगा कि सारा घर का काम उसे ही करना है. वह मेरा मज़ाक भी उड़ाती है कि जब मैं सफाई करती हूं तो हर कमरे में 3 घंटे तो लगते ही हैं वरना मेरी नज़र में वो कमरा ‘साफ’ नहीं होता. वह खाना मुझसे बेहतर बनाती है. तो हमें आपस में यह बात करना सीखना पड़ा कि कौन कौन-सा काम कर सकता है और किसको क्या काम करना चाहिए.”

और घर के कामों के बंटवारे से संबंधित निर्णय मुश्किल होते हैं, मैंने भी यह माना.

"मुझे लगता है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि हममें से कोई भी ज़्यादा या कम औरताना या कम मर्दाना नहीं है. हम अपने जेंडर को अलग-अलग तरह से अभिव्यक्त करते हैं. जब मर्द और औरत के बीच रिश्ता होता है तो आपकी जेंडर अभिव्यक्ति के आधार पर आपको ‘आपका’ काम बता दिया जाता है. यहां आपको आप किस तरह के व्यक्ति हैं इस आधार पर काम का बंटवारा तय करना होता है."

“जब मैं कक्षा 9 में थी तभी मेरे पिता का देहांत हो गया था. मेरी मां ऐसे लोगों में से नहीं थीं जो बताएं ‘ये पहनो, ये मत पहनो, यहां जाओ, वहां मत जाओ’. घर के ज़्यादातर ज़रूरी निर्णय मेरी बहन ही लेने लगी थी. उसका स्वभाव ही कुछ दमदार टाइप का है और मैं ऐसी व्यक्ति बन गई जिसे टकराव ज़रा भी पसंद नहीं. ऐसा नहीं कि मैं ज़रुरत होने पर अपनी बात सख्ती से नहीं रख सकती, मगर मुझे टकराव पसंद नहीं. और ऐसा ही मेरी पार्टनर्स के साथ भी रहा है.”

“रश्मी में हमेशा एक तनाव सा रहता है, सारा काम अपने हाथ में ले लेने का, मगर फिर उसे इस बात का बुरा भी लगता है और मुझसे इस बात पर गुस्सा भी होती है. मगर वो यह भी जानती है कि मैंने उसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा तो वह अपने गुस्से पर खुद को ही कसूरवार भी महसूस करती है. हमने इस बारे में बात की और अपने कामों को काउंसलर के साथ मिलकर बारीकी से बांट भी लिया. मगर इससे नई मुश्किलें खड़ी हो गईं. हम दोनों हमेशा एक-दूसरे के काम से जुड़ी लकीर से बचकर चलते थे. मैंने उसको दिए काम करने बंद कर दिए और उसने मुझे दिए हुए. हमारा सारा ध्यान इस बात पर केंद्रित हो गया कि उसका कौन सा काम है और मेरा कौन सा? हम पार्टनर्स की तरह नहीं बल्कि ऐसे लोगों की तरह रहने लगे थे जो बस एक घर में साथ रहते हैं – रूममेट्स की तरह.”

तो मैंने उससे पूछा, “तुमने दोबारा अपने घर को क्वीयर कैसे बनाया?”

“हमें इस बात का एहसास हुआ और हम दोनों ने ही अपने ही कंट्रोल से अपने आप को आज़ाद किया. हमें एहसास हुआ कि ‘एक हफ्ता मेरा और एक हफ्ता उसका’ हमारे बीच सही काम करता है. अगर किसी को काम का बोझ ज़्यादा लगे तो दूसरा उसकी मदद तो कर ही सकता है. इसके अलावा हमने कामों को जो जिस प्रकार का व्यक्ति है इस आधार पर बांटा यानी क्षमताओं और पसंद के आधार पर.” वह बोली.

“एक तरह से देखा जाए तो हमारा घर एक आदमी और एक औरत वाले हैट्रोसेक्सुअल घरों से ज़्यादा अलग नहीं होता. अगर आप क्वीयर हो तो एक क्वीयर घर में आप सब कुछ कर सकते हो – पार्टनर रख सकते हो, अपने परिवार को अपनी ज़िंदगी में शामिल कर सकते हो, बच्चा गोद ले सकते हो, पालतू जानवर रख सकते हो. मेरी नज़र में मेरा घर दूसरों से अलग नहीं है.”

एबो उम्र /35/ एक गे मर्द हैं, दिल्ली में 2 बैडरूम फ्लैट में कई अन्य गे मर्दों के साथ रहते हैं, जिनके साथ उनका यौनिक या अंतरंग संबंध नहीं है.

एबो दिल्ली में दो बेडरूम वाले एक लंबे से फ्लैट में कुछ अन्य व्यक्तियों के साथ रहते हैं. वे अपने को ऐसे मर्द के रूप में परिभाषित करते हैं जो मर्द से प्यार करता है. उनके किराए पर लिए फ्लैट का एक ‘सामान्य’ साझेदारी वाला सिस्टम है. जहां पार्टी, म्यूज़िक, साझी जगहों (रसोई, बाथरूम, बैठक) की साफ-सफाई, लेबल किए किराने के सामान और घर आने वाले पालतू जानवरों इत्यादी बातों से संबंधित साफ नियम बनाए गए हैं. इन्होंने साफ-सफाई, वाशिंग मशीन (जो फ्लैट के साथ मिली है) में कपड़े धोने और खाना बनाने के लिए एक औरत को काम पर रखा हुआ है. सभी कामों को व्हाट्सएप्प द्वारा बराबर-बराबर बाट दिया गया है. एबो काम के बंटवारे से ‘पूरी तरह संतुष्ट हैं’ – जिसका उनके लिए मतलब है उनका “घर की ज़्यादातर ज़िम्मेदारियां उठाना”.

“क्यों?”

“मैं क्यों संतुष्ट हूं? क्योंकि मैं सबसे बड़ा हूं! मैं सबसे ज़्यादा समय से अपने माता-पिता से अलग रह रहा हूं, तो मुझे घर के काम का सबसे ज़्यादा अनुभव है. जबकि लड़के इसे इतनी अच्छी तरह से और इतनी फुर्ती से नहीं कर सकते. सबसे अच्छा यही है कि मैं ज़्यादातर काम करूं और दूसरों को ज़रुरत के अनुसार काम देता रहूं.”

“मगर क्या आपको लगता है कि ये काम के रिश्ते बदलेंगे?” मैंने उनसे पूछा, “क्या वे आपसे सीख रहे हैं? आपका बोझ हल्का कर रहे हैं?”

वे बड़े उत्साह से बताते चले जाते हैं कि किस तरह बाकि उनसे खास खाने बनाना सीख रहे हैं, “हां, वे सीख रहे हैं”.

खाना पकाना सीखना, मुझे लगा, एक शौक ज़्यादा है, थका देने वाले काम करने की तैयारी नहीं. “क्या कुछ ऐसा है जो वे बिलकुल भी नहीं करना चाहते”, मैंने पूछा.

एबो इस साक्षात्कार में बातें ज़्यादा खोल कर नहीं रखना चाहते थे. उन्होंने कहा कि घर में जो जैसा चल रहा है उसे वे गड़बड़ाना नहीं चाहते. अगर उनके साथ रहने वालों ने ये साक्षात्कार पढ़ा तो उन्हें पता नहीं चलना चाहिए कि उन्हीं के घर की बात हो रही है. अब वे मुझे साफ जवाब देने से पहले लगभग 15 मिनट तक टालमटोल करते हैं. बात यह है कि पखाने साफ करना, कूड़ा निकालना, नालियां साफ करना, हमेशा उनका ही काम होता है, जिसे वे बिना शिकायत करते हैं.

“फिर ‘मैं काम के बंटवारे से पूरी तरह संतृष्ट हूं’ कहने से आपका क्या मतलब है?”

“गे आदमियों को फ्लैट मिलना बहुत मुश्किल होता है. और ऐसे व्यक्तियों का मिलना तो और भी मुश्किल है जिनके साथ आप शांति से रह सको. ऐसे व्यक्ति जिनकी आदतें आपसे मिलती हों ताकि उनके साथ एक घर में रहने में समस्या न आए. इन बातों को ध्यान में रखते हुए साथ रहने के लिए ऐसे व्यक्ति मिलना जो कम से कम घर के काम में मदद कर दें, गंदगी न फैलाएं – मैं संतुष्ट हूं.”

जहां तक मुझे पता है एबो कभी भी औरत के साथ नहीं रहे, मगर फिर भी उन्हें औरतों और घर के कामों को लेकर एक सहानुभूतिपूर्ण समझ है. “मैं अक्सर इस बारे में अपने छात्रों से बात करता हूं. मर्द पैदा होने के नाते हमें बचपन से ही अक्सर यह विशेष अधिकार दिया जाता है – हमें घर का काम करने के लिए कम ही कहा जाता है. मुझे लगता है यह एक ज़रूरी हुनर है जो सबको आना चाहिए. चाहे वो कोई भी जेंडर अभिव्यक्ति रखता हो.”

“क्या आपको नहीं लगता कि पिछले सालों में आपके साथ रहे अलग-अलग लोगों की रूचि घर के कामों में आपसे कम ही रही है? या वे ये काम आपके ऊपर छोड़ देते हैं? क्योंकि वे मर्द हैं?”

“नहीं! शायद नहीं” एबो के साथ रहने वाले अधिकतर उनकी तरह प्रवासी ही रहे हैं और उन्हें लगता है प्रवास करना बड़ा “un-gender-er” है – यानी जेंडर मानकों को तोड़ने वाला होता है. यह सच हो सकता है कि मर्दों को शुरू में घर के कामों और रख-रखाव की जानकारी न हो. “मगर आगे चलकर, जब हम दूसरे शहरों में काम की तलाश में जाते हैं, तब हम सब सारे काम खुद करना सीखते हैं, अक्सर बिलकुल शुरुआत से.”

“हां, मगर वे ये आप पर छोड़ देते हैं.”

“मुझे हमेशा लगा है कि वे घर में कौन-सा काम कर सकते हैं, कौन-सा नहीं, इसे वे कैसे देखते हैं, यह उनके उच्च वर्ग या जाति के होने या न होने पर निर्भर करता है.”

अभी उनके साथ रहने वाले क्या उच्च जाति के हैं? क्या वे एबो से ज़्यादा कमाते हैं? 

“मैं एक प्रवासी हूं, हम सब में से मेरी हिंदी सबसे ज़्यादा टूटी-फूटी है.” एबो हंसते हुए कहते हैं. और जैसाकि वे खुद ही कहते हैं, उनका वर्ग इस बात पर निर्भर नहीं करता कि आज या इस महीने में वे कितना कमा रहे हैं. उनका दर्जा एक वक्त में जितना भी था, माता-पिता का सहारा छूट जाने से उसमें कमी आई है. एबो जाति के बारे में आगे कुछ नहीं बोलते. 

दिल्ली में उनके लगभग सभी घरों में घर के कामों में कितनी सहायता मिलने से वे “संतुष्ट” हैं, शायद इसका माप घटता चला जाता है. “क्या आपको लगता है कि आपके क्वीयर घर में, आपके माता-पिता के घर की तरह होने वाला असमान व्यवहार दोहराया जा रहा है?” मैंने पूछा. “वहां औरतें सारा काम करती थीं और यहां आप करते हैं.”

मैं कहूंगा कि मेरा अपना क्वीयर घर, औरत-मर्द के रिश्ते पर टिके घर बसाने के पूरे सिलसिले पर एक व्यंग्य है. यह असमान बंटवारा पहले मुझे बहुत परेशान कर देता था. मगर अब मैंने इसके बारे में सोचना लगभग बंद ही कर दिया है. बात दरअसल यह है कि कोई भी व्यवस्था ऐसी नहीं जिसमें कोई कमी न हो.

क्वीयर होने के नाते एक साझी समझ है, जो ऐसे घरों में बिलकुल भी नहीं होती जहां 99% घर का काम औरतें ही करती हैं. वैसे भी, जब आप क्वीयर होते हो, आपके घर से दूर यह घर अपने आप ही क्वीयर बन जाता है क्योंकि यह आपको अपनी एक जगह और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है.

“तो आपका घर क्वीयर है क्योंकि ये आपको साझी समझ और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है?”

“हां बिलकुल”, एबो बताते हैं. “और हां”, वे आगे कहते हैं, “क्वीयर होने की यह परिभाषा सिर्फ यौनिक अल्पसंख्यको तक ही सीमित नहीं है. अन्य तरह के हशियाकरण भी इसमें शामिल हैं, जैसे जंग, ढांचागत अन्याय या मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दों से क्वीयरनेस जुड़ा है.”

“एकजुटता से”, हां, मैं समझ गई.

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रुद्रानी, उम्र 41, ट्रांसजेंडर हैं, उनके जन्म पर उन्हें लड़का कहा गया था. लेकिन अब वो खुद अपनी पहचान ट्रांसजेंडर बताती हैं और पश्चिमी दिल्ली के एक छोर में, अपने सिस जेंडर पार्टनर के साथ रहती हैं. सिस जेंडर ऐसे व्यक्ति हैं जिनकी जेंडर पहचान और जन्म पर निर्धारित जेंडर में मेल होता है. इसमें शामिल होते हैं वे लोग जो जन्म से लड़की मानी गई हों और बड़ी होकर भी अपने आप को लड़की और फिर औरत मानती हैं. वे लोग जो जन्म से लड़के माने गए हों और बड़े होकर भी अपने आप को लड़का और फिर आदमी मानते हों.

रुद्रानी का घर संभावनाओं से भरा है. यहां कुत्ते हैं और मछलियां भी. कहीं कोई रसोई में खाना बना रहा है, कुछ अलग ही रचनात्मकता से गढ़ी देवी-देवताओं और गुरुओं की तस्वीरें दीवारों पर लगी हैं और तरह-तरह की चित्रकारी भी – कुछ आधुनिक स्टाइल की और कुछ प्रकृति के नज़ारों की. कई आकार-प्रकार, कुछ नर्म कुछ खुरदुरे फर्निचर कुछ इस तरह सजे हैं मानो उनकी अपनी-अपनी टोलियां हों. चकरा देने वाले अलग-अलग तरह के बिछाए और लटकाए कपड़े.

प्राचीन नज़र आने वाले और शक्तिशाली माने जाने वाले तंत्र तलिस्मान, साथ ही नए से नए घरेलू मशीनीगैजेट भी. फिर भी, ऐसा लगता है कि यह घर रचा-बसा है. अभी इस क्षण में अपनी जड़ों पर टिका हुआ है मगर फिर भी उसमें एक हल्कापन है, एक लचीलापन है मानो वो स्थिर नहीं बल्कि बदलती ऊर्जा के बहाव में हो.

रुद्रानी इस घर के लिए बिलकुल फिट बैठती है. वह घर में तेज़ी से चलती है. उसे पता है हर चीज़ कहां रखी है. लगता है जैसे घर में ऐसा कुछ भी नहीं जिसे उसने अक्सर छुआ न हो.

जगहों, रहने के तरीकों, काम, प्यार और आराम को लेकर उसके विचार बदल सकते हैं. एक चीज़ पर कई नज़रियों से परिचित है. वह अपनी बातों को एक घुटे हुए अंदाज़ में बयान करती है, उस बिखराव के साथ नहीं जो ज़्यादातर विचार व्यक्त करने में सुनाई पड़ता है. फिर भी, उसके कहे विचार कई दिशाओं में बहते हैं, कई बिंदु खोजते हैं, फिर वापस आ जाते हैं. वे चलते रहते हैं, रुकते नहीं. 

बालकनी में रखा फव्वारा उसकी बातचीत जैसा था – लंबा और गहरे रंग का, चिकना और चमकीला, ताज़ा और लगातार हर बार नया.

“यह दिवाली मैंने इसी को बनाने में गुज़ारी.” वह मुझे बताती है, “इस घर में हर किसी चीज़ का एक मतलब है, महत्त्व है. मेरा मौजूदा पार्टनर, पिछले 41 सालों में हुए मेरे चार पक्के रिश्तों में से पहला होगा जो इस घर की उतनी ही परवाह करता है जितनी मैं.”

वह रुद्रानी की सफाई करने और खाना बनाने में मदद करता है. खुद सफाई करता है और खाना बनाता है, अलमारियों में सामान रखता है. घर की चीज़ों को बेहतर बनाने, उनके रख-रखाव और ठीक करने में रूचि लेता है. हालांकि, रुद्रानी ही ज़्यादातर घर का काम करती है (उसके घर काम करने वाली के साथ) और चीज़ों की मरम्मत करती है. कभी-कभी वह चीज़ों की मरम्मत करने आए लोगों के काम पर भी नज़र रखती है. जितने लोगों से हमने इंटरव्यू किया एक रुद्रानी ही थी जिसने शादी की चाहत को ज़ाहिर किया और एक ऐसे अंदाज़ में जिसमें छिपी थी यह भावना कि काश मैं शादी कर पाती. 

“सबके बावजूद, मुझे पता है कि एक दिन वो चला जाएगा. देखो, ऐसे रिश्ते में कोई ढांचा संभव नहीं है, समाज इसको नहीं मानता. कोई सामाजिक बंधन नहीं है. मैं क्या करूंगी अगर वह एक दिन शादी करने का निर्णय ले ले? उसके ऊपर मुझे छोड़ देने के लिए मुकदमा चलाऊंगी? अगर ये कानूनी तौर पर हो भी सकता तो मुझे न जाने कितने गड्ढों को लांघना पड़ता, सफाई देनी पड़ती कि हमारा रिश्ता क्या है, समझाना पड़ता कि मैं कौन हूं.”

मैंने पूछा क्या उसके घर का डिज़ाइन अकेले रहने की संभावना को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है?

“घर संभालने के लिए की जाने वाली मेहनत और इसमें रिश्ता संभालने की मेहनत आपस में उलझे हुए हैं. है ना? मैंने इस जगह को अपने लिए तराशा है. मगर जब मैंने यह घर अपने पार्टनर के साथ खरीदा था, तब यह सिर्फ मेरी पहचान बनाए रखने की ही जगह थोड़ी न थी.

मगर अलग तरह से देखा जाए, तो ऐसा तो हमेशा होता है. कुछ हद तक इसलिए भी क्योंकि यही हमारी सच्चाई है: किसी भी ट्रांसजेंडर व्यक्ति का सिस जेंडर व्यक्ति के साथ रिश्ता लंबा नहीं चलता. साथ बूढ़े हों, ऐसा नहीं होता. तो मेरे किसी रिश्ते में होते हुए भी, मेरे घर को हमेशा यह तैयारी रखनी होती है कि शायद इसमें एक ही व्यक्ति रहे.

एक अन्य तरीके से देखें तो, मैं हीजड़ा घराना का हिस्सा मानी जाती हूं. (यह मेरी पहचान से जुड़े नियमों का हिस्सा है. क्वीयर पहचानों के लिए भी नियम होते हैं. है ना?) हीजड़ा घराने का एक टिकाऊ ढांचा होता है, जो ज़रूरी भी है. क्योंकि ज़्यादातर ट्रांसजेंडर लोगों के पास उन्हें जन्म देने वाले परिवारों का सहारा नहीं होता. मगर इसका यह भी मतलब है कि जो सारा काम आप करते हैं, जो भी आप कमाते हैं, वह उस ढांचे में रहने वालों का होता है – सभी का. आपका सारा काम उस ढांचे के लिए होता है.”

“मुझे वो नहीं चाहिए था. मुझे एक घर चाहिए था जो मेरा अपना हो. अगर मुझे कुछ हो जाए तो मैं यह कह सकूं कि यह मेरी इच्छा है कि मैं अपना सब कुछ किसके लिए छोड़ कर जा रही हूं – मेरा भाई, मेरे माता-पिता या मेरा बॉयफ्रेंड… इसे मेरा होना ही था.”

क्या उसे कभी गुस्सा आता है कि वह सारा काम करती है, मालिकाना अधिकार साझा करती है मगर देख-रेख की ज़िम्मेदारी का बंटवारा नहीं है?

“पता नहीं. यही मेरी सच्चाई है, यही मैंने चुना है. मुझे एक बार बहुत डर लगा था, जब मेरी मेरे पिछले पार्टनर से लड़ाई हो रही थी. आपको पता है कि कैसे बोला जाता है ‘या तो तुम चले जाओ या तो मैं’…उसने कहा ‘जाओ’… और मैं चली गई. रात 11.30 बजे, मैं अपने खुद के घर से निकल गई और एक चाय वाले की दुकान पर सुबह 4 बजे तक बैठी रही.”

“मगर इससे मुझे ‘काम’ को लेकर नाराज़गी नहीं है. मालिकाना अधिकार, जिस तरह से आदमी मुझे देखते हैं, मुझे अपनाते हैं. मुझे उसमें हक का एहसास होता है. जो मैं हूं वो हूं, उसकी स्वीकृति है. वही महत्त्वपूर्ण है और जो मैं करती हूं उसका इससे कुछ लेना-देना नहीं है.”

“मेरा मौजूदा पार्टनर बहुत गुस्सा हो गया जब पिछली बार दो लड़के मेरे दरवाज़े पर मेरा आशीर्वाद लेने आए. पहले तो उसके समझ में ही नहीं आया कि वे क्या कह रहे हैं. जब उसके समझ में आया तो वो उन पर हमला करने के लिए तैयार था. ‘वे आए कैसे? उनकी हिम्मत कैसे हुई? तुम ऐसा क्या करती हो जो उन्हें लगा कि वे यहां आ सकते हैं, ऐसी बात बोल सकते हैं?'”

“मेरा शरीर, मेरी चाहत, मैं जो अपने लिए तय करती हूं इन सब का घर से बाहर की दुनिया में कोई मतलब नहीं है.
यहां, सिर्फ यहीं की चीज़े महत्त्व रखती हैं. इस तरह की सुरक्षित जगह साझा करना, किसी का यहां होना जो बिना शर्तों के मुझे सुरक्षा का एहसास कराए, जो बिना शर्तों के पूरी तरह से अपनाए कि ‘मेरा’ शरीर, ‘मेरी’ चॉइस, ‘मेरी’ चाहत जैसी भी कोई चीज़ है. ये मेरे लिए इतना ज़रूरी है कि एक ओर ये और दूसरी ओर काम – सही मायने में काम ही करने लायक चीज़ है.”

कार्यशाला

क्वीयर घर हमसे क्या चाहते हैं?

जिन क्वीयर घरों में हम गए, उन्होंने हमें सोचने के लिए नई चीज़ें दीं जिनसे हम घर और परिवार से जुड़े प्रचलित विचारों पर सवाल कर सकें, उन्हें चुनौती दे सकें. इन घरों ने हमें खुद अपने रिश्तों और गृहस्थी को समझने के तरीकों पर दोबारा नज़र डालने के लिए प्रेरित किया.

कुछ सवाल खुद से पूछने के लिए, उनसे पूछने के लिए जो हमारे करीब हैं और शायद अजनबियों के लिए भी.

घर एक ऐसी जगह है जो जितनी वास्तविक है उतनी ही काल्पनिक भी. एक ऐसा आईना जो हमें दिखाता है कि हम कौन हैं, हम क्या बन गए हैं और हम क्या बनना चाहते हैं. आप अपने घर के बारे में कैसे सोचते हैं?

परिवार – समाज की सबसे छोटी इकाई, मगर इसके बावजूद सबसे महत्त्वपूर्ण. क्या परिवार आधारभूत रूप से एक ऐसी जगह है जहां जेंडर असमानताएं जन्म लेती हैं और फलती-फूलती हैं? एक ऐसी संरचना जो अपनी पकड़ को बनाए रखने के लिए पितृसत्तात्मक नियमों और व्यवहारों की रक्षा करती है?

काम – आप अपने घर, परिवार में काम को किस नज़र से देखते हैं? क्या हम अपने घरों में काम के बंटवारे को अधिक रचनात्मक और सहज तरीके से देख सकते हैं? हर कोई हर काम में अच्छा नहीं होता, मगर हम सब किसी न किसी काम में अच्छे होते हैं. क्या हम श्रम की बंधी बंधाई गिनतियों की जगह अपनी ज़िम्मेदारियों के बंटवारे को अनुभवों के आधार बांट सकते हैं ? और इन ज़िम्मेदारियों के लिए समानता और न्याय के अपने मापदंड को विकसित कर सकते हैं? रोज़मर्रा की गृहस्थी में कैसे काम पर एक नएपन और कोमलता के साथ बातचीत और मोलभाव किया जा सकता है?

एक घर बनाना, परिवार बनाना वैसे भी मेहनत का काम है. ‘जेंडर’ को खोलना और उसके साथ आने वाली अपेक्षाएं इस काम को और मुश्किल बना देती हैं. और दूसरे मानकों का क्या जैसे – जाति, वर्ग, धर्म, पहचान, निकटता, भिन्नता. जो बाहर से लगातार अंदर की ओर दबाव बनाते रहते हैं. ये कैसे गृहस्थी में घुसते हैं, उस पर प्रभाव डालते हैं और उसको आकार देते हैं?

घर और परिवार को लेकर आपकी कल्पना स्थिर है या सना और रश्मी व एबो और रुद्राणी की तरह विकसित होती रहती है?

I

सना और रश्मी श्रम का निर्धारण ‘आप जिस तरह के व्यक्ति हैं’ इस आधार पर करने की कोशिश करती हैं. यानी जिसके पास जो क्षमताएं हैं या जिसे जो करना पसंद है, यह आधार बन जाता है. आपके क्या आधार हैं? आप अपने घर मे कामों का बंटवारा कैसे करते हैं? क्यों? वे क्षमताएं कितनी जेंडर आधारित हैं?

सना के लिए उसका घर “विषमलैंगिक घर” से ज़्यादा अलग नहीं है. आपको क्या लगता है, क्वीयर घर विषमलैंगिक घरेलू जीवन से अलग हैं या फिर उनके जैसे ही हैं? कैसे?

II

एबो के लिए अपने साथ रहने वालों के मुकाबले अधिक काम करना समस्या नहीं है. “कोई भी व्यवस्था ऐसी नहीं जिसमें कोई कमी न हो” और उसके “संतुष्ट” होने की वजह यह है कि सारे समझौतों के बावजूद उसका घर एक ऐसी जगह है जिसे पूरी तरह उसने बनाया है. एक ऐसी जगह जहां उसके साथ रहने वाले उसकी पहचान, उसके रहने के तरीकों को नहीं ठुकराते. ऐसे में ज़्यादा काम करना, इसके लिए एक छोटी कीमत है. आपने अपने परिवार या साथियों के लिए अपने घर में क्या समझौते किए हैं? क्या यह आपने अपनी मर्ज़ी से किए थे या अन्य दबावों से मजबूर होकर?

एबो के लिए प्रवास करना बड़ा “un-gender-er” है – यानी जेंडर के कायदों को तोड़ने की ताकत रखता है. उसके जैसे प्रवासी पुरुष या लड़के, चाहे वे किसी खास वर्ग के ही हों “कई चीज़ें बिलकुल शुरुआत से करना सीखते हैं. “खाना पकाना, सफाई करना, घर के काम करना – प्रवासी पुरुष ऐसा श्रम करते हैं जिन्हें ठेठ जेंडर के कायदों और आसपास के माहौल में फिज़ूल समझा जाता है.

क्या ये un-gendering भी वापस पलट जाती है जब वही आदमी दोबारा परिचित घर-परिवार में कदम रखता है? क्या अपनी पुरानी दुनिया में वापस चले जाने पर आदमी अपना पुरुषत्व अलग तरह से प्रदर्शित करते हैं?

III

घर – एक ही समय पर सुरक्षा का अहसास है और संघर्ष की जगह भी है. जहां हम ‘आज़ादी’ भी महसूस करना चाहते हैं और साथ−साथ जेंडर के नियमों के परिचित क्रम भी चाहते हैं. रुद्राणी का गृहस्थी को लेकर जटिल अनुभव, हमें सोचने पर मजबूर करता है कि हम अपने लिए जो गृहस्थी बनाते हैं वह कितनी हमारी अपनी बनाई हुई होती है. आपका घर अन्य देखे–अनदेखे कारणों से कितना प्रभावित है? ऐसी कौन सी चीज़ें हैं जिनके खिलाफ आप किसी को बचाने के लिए बगावत कर देते हैं और किन चीज़ों को स्थान देते हैं, उन्हें मान लेते हैं और क्यों?

रुद्राणी इस बात को लेकर काफी स्पष्ट है कि रिश्ते में होने के बावजूद “मेरे घर को अकेले रहने की संभावना के लिए तैयार रहना चाहिए” आप जिसके साथ आज घर साझा कर रहे हैं हो सकता है कल यह बदल जाए. हो सकता है आपकी ज़िंदगी में ऐसा पड़ाव आए जब आप अकेले हों. आप अकेलेपन और घर को कैसे देखते हैं? क्या आपको लगता है कि किसी के साथ रहने या न रहने पर आपकी घर-गृहस्थी की धारणा बदलेगी?

इस लेख का अनुवाद सादिया सईद ने किया है.

उर्वशी वशिष्ट एक स्वतंत्र शोधकर्ता, टीचर, लेखक और संपादक हैं. वे दिल्ली में रहती हैं. उन्होंने विश्वविद्यालयों, प्रकाशन, और विकास क्षेत्र में काम किया है और इन दिनों वे जानवरों के अधिकारों, घरेलू हिंसा, और नॉन कमफरमेटिव जेंडरनेस पर काम कर रही हैं.

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