अंक 003: शहर

शहर अकेला है, लाख हैं गलियां

किसी की ज़िंदगी का स्टेपनी

वड़ोदरा, गुजरात में पढ़ाई कर रहे ट्रैवल फेलो अचल, चित्रों और शब्दों के ज़रिए शहर के किस्सों को काग़ज़ पर उतारते हैं. तीन हिस्सों में बंटा यह कॉमिक्स सीरीज़ एक क्वियर की नज़र से शहर को देखने का प्रयास है.

“आदिवासी बचेंगे तो जंगल बचेंगें”

नक्शा ए मन शृंखला की इस दूसरी कड़ी में प्रकाश और बाओ एक विकृत दुनिया और उसकी उलटबासियों को समझने की कोशिश कर रहे हैं जो आदिवासियों को ‘बाहरी’ समझती हैं.

ख़ुदा हाफ़िज़

एकल इन द सिटी Ep.1: ख़ुदा हाफ़िज़

महानगरों या बड़े शहरों से दूर किसी सुदूर इलाके में एकल महिला होने के क्या अर्थ हैं? शहरों की रुमानियत से दूर ऐसी जगहों पर एक महिला के अकेले रहने के अनुभव कैसे होते हैं? कोई एकल क्यों होता है? कौन से शब्द हैं जो इसे परिभाषित करते हैं? क्या यह संपूर्ण जीवन है या जीवन का एक हिस्सा?  

सफ़र का ही था मैं सफर का रहा…

कल रात सोने में देर हुई इसलिए सुबह देर से उठा. दातून करने, नहाने जैसे रोज़ के कामों को निपटा कर एक दो लोगों से फोन पर बात की, एक सेब काटकर नाश्ता किया और तैयार होकर कमरे से बाहर आ गया. बाहर मेरी गाड़ी खड़ी थी. उसपर कपड़ा मारने के बाद अपने काम पर निकल पड़ा.

गुमसुम सी छत

मोहल्ले के तमाम घरों को जोड़ती छतें खुली और विशाल दिखाई देती हैं. ठीक उसके उलट हमारा अन्तर्मन कई तरह की घेरों में बंधा होता है. इसी बीच ज़िंदगियां चलती-बदलती रहती हैं. अंकुर संस्था से जुड़ी रौशनी की इस बयानी में छत किसी अंदर-बाहर की अदला-बदली को चरितार्थ करती हुई दिखाई देती है. कोविड का समय एवं मानसिक, आर्थिक और सामाजिक स्तर पर लोगों पर पड़े उसके प्रभावों को रौशनी बहुत ही सीधे शब्दों में सामने रख देती हैं.

शहर जैसे आग का दरिया

ये कहानी एक प्रेम कहानी है जिसमें तीन किरदार हैं – एक भाई, एक बहन और एक स्मार्टफोन. और एक की मौत हो जाती है. जिगर मुरादाबादी ने कहा है कि – ये इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजे/एक आग का दरिया है और डूब कर जाना है… ये कहानी भी ऐसे ही एक दरिया की दास्तां हैं.

हमारे शहर पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए डिज़ाइन किए गए हैं

दुनिया भर में, शहरों को पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए डिज़ाइन किया गया है. और वो भी एक ख़ास तरह के पुरूषों के लिए जो – जवान, स्वस्थ और सिस-जेंडर हैं. इस कारण महिलाएं – युवा हों या बुज़ुर्ग, ट्रांसजेंडर समुदाय, और जेंडर के नियमों से परे किसी भी अन्य को – जो हट्टे कट्टे पुरुषों के इस सजातीय समूह में फिट नहीं होते – कई तरह की दिक्क़तों का सामना करना पड़ता है.

बलकट्टी-परकट्टी

पटनावाली की दूसरी क़िस्त में स्वाती हमें मिला रही हैं ‘संस्कारानंद’ से जिनकी तर्क-विद्या से आपके भी होश उड़ जाएंगें. एक ट्रेनिंग के दौरान 16 साल के लड़के से हुई मुलाक़ात और उसकी परेशानी का कारण जानने के बाद यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने, बाल कटवाने या कहीं आने-जाने जैसी छोटी-छोटी आज़ादियों के लिए कई सवालों का जवाब देना पड़ता है.

गतिशीलता की राहों पर सांप भी हैं और सीढ़ियां भी

हममें से आठ — बस्ती की चार लड़कियां और चार उम्रदराज महिलाएं — अलग-अलग जगहों की कल्पना करते हुए कमरे में घूम रही हैं. हम कभी खुले मैदान में चल रही हैं तो कभी मेट्रो पकड़ रही हैं. कभी हम ख़ुशी और उल्लास के मारे चीख रही हैं, चिल्ला रही हैं तो कभी अचानक से शुरू हो गई बारिश में भीग रही हैं.

‘ये सीट महिलाओं के लिए आरक्षित है’

प्रोफ़ेसर डॉ. रॉबिन लॉ के मुताबिक, 1970 के दशक में आए कुछ महत्तवपूर्ण मार्गदर्शक शोध आलेखों ने पहली बार इस विचार को स्थापित किया कि महिलाओं का सार्वजनिक परिवहन का अनुभव पुरुषों से अलग होता है. प्रो. रॉबिन कहते हैं कि इसके बाद में दो समांतर शोध क्षेत्र उभरे. एक ने डर और यौनिकता पर ध्यान केन्द्रित किया.

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