अंक 003: शहर

शहर अकेला है, लाख हैं गलियां

अकेले और चलना चाहिए

एकल इन द सिटी Ep 3: अकेले और चलना चाहिए

एकल इन द सिटी के इस तीसरे एपिसोड में मिलिए अनु से जो छत पर बने अपने कमरे से हमारा परिचय करवाती हैं. आज से करीब 76 साल पहले वर्जिनिया वुल्फ ने अपने लेख ‘अ रूम ऑफ़ वन्स ओन’ में लिखा था कि रचनात्मक रचने के लिए लड़कियों और महिलाओं के पास अपना एक कमरा होना चाहिए. किसे पता था कि अजमेर जिले के केकड़ी गांव में 31 साल की अनु उस ‘अपना एक कमरा’ को इतने सम्मान के साथ चरितार्थ कर रही होगी.    

वापसी

साल 2020 में कोविड के दौरान देशभर में लगे लॉकडाउन की वजह से ज्योति अपने गांव सवाऊ मूलराज वापस लौटती हैं. उन्होंने गांव में रहते हुए वहां के परिदृश्य, लोगों औऱ घटनाओं को अपने कैमरे में कैद करना शुरू किया.

मेरी सगीना

नए शहर की घुमक्कड़ी के रोमांच, कोरोना के खुलने के बाद की आकुलता, हउआ के सब चीज़ों को देख लेने की आकांक्षा से भरी एक टटकी बात. न्योता मिला एक शादी में जाने का. ढोल, बाजे- गाजे और बिग फैट इंडियन वेडिंग देखने का प्रलोभन कुछ ज़्यादा ही था. शादी के लिए एक नितांत नए शहर में जाना और नए किरदार खोजने का उत्साह उससे भी ज़्यादा.

“गांव में लोग रात में मछली पकड़ते हैं और शहरों में अपना काम पूरा करके सो जाते हैं”

मेरा गांव कोंकेया, झारखंड के खूंटी ज़िले में आता है. मुझे वहां के पर्व-त्यौहारों में सभी के साथ मिलकर नाचना-गाना, एक-दूसरे के घर जाना, मिठाई खाना, वहां की चहल-पहल अच्छी लगती है. खासकर जब ढोल, नगाड़े, मादर बजते हैं और लोग साथ में गाने हैं, मुझे बड़ी खुशी होती है.

“पहले घर में कपड़े रखने के लिए कुछ नहीं था, तो मुझे बहुत खुशी हुई कि अब मेरे घर में भी बक्सा है.”

मैं अपने गांव कोंकेया से, जो झारखंड के खूंटी ज़िले में आता है, दिल्ली इसलिए गई कि मेरे गांव की दो लड़कियां दिल्ली गई हुई थीं. जब भी दोनों गांव आती थीं, अच्छे कपड़े पहनतीं, उनके पैरों में चप्पल होती, अच्छी खुशबू वाला तेल लगातीं, चेहरा गोरा यानी साफ दिखता था, मोटी होकर आतीं.

दिल्लीः लटकनवाली हिंदी यानी हिंग्लिश का शहर

अपने भाषाई प्रयोग और कहने के अंदाज़ से दिल्ली एक दिलचस्प शहर है. सत्ता के इस शहर में लाखों कामगार – छोटे दुकानदार दिहाड़ी जिस पंजाबी-हरियाणवी, बिहारी-भोजपुरी के प्रभाव के साथ हिंदी का प्रयोग करते हैं, उस हिंदी में अंग्रेज़ी और उसके शब्द एक ख़ास किस्म की लटकन है.

दाम्पत्य और असंतोषः एक कहानी तस्वीरों की ज़ुबानी

1870 और 1920 के बीच की अवधि को पूरे भारत में दाम्पत्य/नव दाम्पत्य परियोजना (विवाहित जोड़े की एक नई कल्पना) को आगे बढ़ाने का उत्तम समय माना जा सकता है और यह महाराष्ट्र में भी बहुत अच्छी तरह से दिखाई देता है.

छत, दिल्ली और नसरीन के अफसाने

20 साल की नसरीन, दिल्ली शहर को अपनी छत से देख रही है क्योंकि पूरे शहर में यही वो एक जगह है जो उसे अपनी लगती है, जहां वो कभी भी आ-जा सकती है. जिस महानगर में सांप की तरह तेज़ी से भागती मेट्रो मिनटों में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा देती है, वहीं नसरीन के लिए उसका शहर उसकी पहुंच से बहुत दूर है.

“पीछे छूट गए लोगों के लिए यह शहर मुगलन था, अकेलेपन और छोड़ दिए जाने का पर्याय.”

दार्जिलिंग की हवादार गलियों में जब लोग दुकानों के बाहर और गलियों के मुहानों पर आग जलाकर बैठे होते हैं, तो किसी को भी ये आवाज़ें सुनाई दे सकती हैं – “अइया! के सरो चिसो हो!” (“भगवान, इतनी ठंड क्यों है!”). सूरज का दिखाई देना यहां किसी सामूहिक उत्साह से कम नहीं.

“हमारी ज़िंदगियां दो समांतर रेखाओं की तरह है. हम दोनों की भटकन और तलाश एक जैसी है.”

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर फतेहपुर के रहने वाले रुहान आतिश अपनी पहचान एक ट्रांसमैन के रूप में देखते हैं. उन्हें कविताएं लिखने का शौक है. वकील होने के साथ-साथ वे एक कार्यकर्ता भी हैं. इस सीरीज़ में रूहान के ‘नक्शा ए मन’ को आकार देने का काम तमिलनाडु की रहने वाली, ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता, कवि, उद्धमी, एक्टर एवं प्रेरक वक्ता कल्कि सुब्रमण्यम ने किया है.

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